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| * [[Одиночество (Рильке/Куприянов)|Одиночество]] | | * [[Одиночество (Рильке/Куприянов)|Одиночество]] |
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− | АДЕЛЬБЕРТ ФОН ШАМИССО (1781 – 1838)
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− | ВОЗВРАЩИЕ
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− | На родину с чужбины возвращаясь
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− | До глубины души растроган странник;
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− | Колени преклонив, роняет посох
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− | И тихими слезами орошает
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− | Тебя, Германия! За грусть такую
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− | Не откажи ему в одной надежде:
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− | Когда под вечер странник утомится,
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− | Пусть на твоей земле найдет он камень,
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− | Чтоб на него поникнуть головою.
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− | AUF DER WANDERSCHAFT
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− | ***
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− | Noch hallt nur aus der Ferne
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− | Ein frisches Liedchen von mir-
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− | Der Vater eilt zu dem Kinde,
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− | Der Geliebte, mein Feinlieb, zu dir.
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− | Er küsst dir auf die Stirne,
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− | Er küsst die auf den Mund,
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− | Nun sie zu dir ihn tragen,
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− | Sind ihm die Füsse nicht wund.
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− | ИЗ ЦИКЛА «СКИТАНИЯ»
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− | ***
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− | За песней стремлюсь вдогонку,
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− | А песня с ветром летит.
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− | Отец спешит к ребенку,
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− | Любимый к тебе спешит.
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− | Забуду тоску дороги,
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− | Увидев твое лицо;
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− | И боль позабудут ноги,
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− | Ступив на твое крыльцо.
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− | FRÜHLING
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− | Der Frühling ist kommen, die Erde erwacht,
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− | Es blühen der Blumen genung.
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− | Ich habe schon wieder auf Lieder gedacht,
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− | Ich fühle so frisch mich, so jung.
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− | Die Sonne bescheinet die blumige Au',
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− | Der Wind beweget das Laub.
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− | Wie sind mir geworden die Locken so grau?
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− | Das ist doch ein garstiger Staub.
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− | Es bauen die Nester und singen sich ein
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− | Die zierlichen Vögel so gut.
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− | Und ist es kein Staub nicht, was sollt' es denn sein?
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− | Mir ist wie den Vögeln zu Mut.
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− | Der Frühling ist kommen, die Erde erwacht,
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− | Es blühen der Blumen genung.
| |
− | Ich habe schon wieder auf Lieder gedacht,
| |
− | Ich fühle so frisch mich, so jung.
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− | ВЕСНА
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− | Земля пробудилась, приходит весна,
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− | Вокруг расцветают цветы.
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− | Душа моя снова от песен тесна,
| |
− | И вновь я во власти мечты.
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− | Сияя, встает над полями рассвет,
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− | И ветер с листвой не суров.
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− | А мне все казалось, что волос мой сед, –
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− | Нет, это пыльца от цветов.
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− | И птицы во всю гомонят без конца,
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− | Их щебет звенит надо мной.
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− | И нет седины, это просто пыльца,
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− | Я счастлив, как птицы весной.
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− |
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− | Земля пробудилась, приходит весна,
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− | Вокруг расцветают цветы.
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− | Душа моя снова от песен тесна,
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− | И вновь я во власти мечты.
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− | NACHT UND WINTER
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− | Von des Nordes kaltem Wehen
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− | Wird der Schnee dahergetrieben,
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− | Der die dunkle Erde decket;
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− | Dunkle Wolken zieh'n am Himmel,
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− | Und es flimmern keine Sterne,
| |
− | Nur der Schnee im Dunkel schimmert.
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− | Herb' und kalt der Wind sich reget,
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− | Schaurig stöhnt er in die Stille;
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− | Tief hat sich die Nacht gesenket.
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− | Wie sie ruh'n auf dem Gefilde,
| |
− | Ruh'n mir in der tiefsten Seele
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− | Dunkle Nacht und herber Winter.
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− | Herb' und kalt der Wind sich reget,
| |
− | Dunkle Wolken zieh'n am Himmel,
| |
− | Tief hat sich die Nacht gesenket.
| |
− | Nicht der Freude Kränze zieren
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− | Mir das Haupt im jungen Lenze,
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− | Und erheitern meine Stirne:
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− | Denn am Morgen meines Lebens,
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− | Liebend und begehrend Liebe,
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− | Wandl' ich einsam in der Fremde.
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− | Wo das Sehnen meiner Liebe,
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− | Wo das heiße muß, verschmähet,
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− | Tief im Herzen sich verschließen.
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− | Herb' und kalt der Wind sich reget.
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− | Dunkle Wolken zieh'n am Himmel,
| |
− | Und es flimmern keine Sterne.
| |
− | Wie sie ruh'n auf dem Gefilde,
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− | Ruh'n mir in der tiefsten Seele
| |
− | Dunkle Nacht und herber Winter.
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− | Leise hallen aus der Ferne
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− | Töne, die den Tag verkünden. –
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− | Wird der Tag denn sich erhellen?
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− | Freudebringend dem Gefilde
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− | Wird er strahlen, Nacht entschweben,
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− | Herber Winter auch entfliehen,
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− | Und des Jahres Kreis sich wenden,
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− | Und der junge Lenz in Liebe
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− | Nahen der verjüngten Erde.
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− | Mir nur, mir nur ew'ger Winter,
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− | Ew'ge Nacht, und Schmerz und Thränen,
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− | Kein Tag, keines Sternes Flimmer!
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− | НОЧЬ И ЗИМА
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− | Ветер северный нахлынул,
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− | Навевает снег и стужу,
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− | Землю темную заносит.
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− |
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− | Тучи темные нависли,
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− | Ни звезды в холодном небе,
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− | Только снег во тьме сияет.
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− |
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− | Лютый ветер стужу гонит,
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− | В тишине тревогу будит,
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− | Ночь нависла над землею.
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− |
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− | Как в пустом остывшем поле,
| |
− | В глубине души застыли
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− | Ночи тень и лютость стужи.
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− |
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− | Лютый ветер стужу гонит,
| |
− | Тучи темные нависли,
| |
− | Ночь нависла над землею.
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− |
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− | Нет, цветы не увенчают
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− | Мне главу порой весенней
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− | И печали не развеют,
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− | Потому что утром жизни,
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− | Любящий, любовь таящий,
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− | Я скитаюсь на чужбине;
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− | Потому что я стараюсь
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− | Скрыть отверженные чувства
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− | Навсегда в глубинах сердца.
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− | Лютый ветер стужу гонит,
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− | Тучи темные нависли,
| |
− | Ни звезды в холодном небе.
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− | Как в пустом остывшем поле,
| |
− | В глубине души застыли
| |
− | Ночи тень и лютость стужи.
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− | Вдалеке уже раздался
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− | Тихий звон, предвестник утра, –
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− | Неужели день наступит?
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− | Он придет, наполнит поле
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− | Светом, сумерки развеет,
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− | Зиму лютую прогонит.
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− | Год на круг весны вернется,
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− | И любовь придет на землю,
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− | На простор, простертый к свету.
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− | Но во мне – зима без края,
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− | Ночь без утра, боль и слезы,
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− | Ни звезды в глубинах сердца…
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− | IM HERBST
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− | Niedrig schleicht blaß hin die entnervte Sonne,
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− | Herbstlich goldgelb färbt sich das Laub, es trauert
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− | Rings das Feld schon nackt und die Nebel ziehen
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− | Über die Stoppeln.
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− | Sieh, der Herbst schleicht her und der arge Winter
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− | Schleicht dem Herbst bald nach, es erstarrt das Leben;
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− | Ja, das Jahr wird alt, wie ich alt mich fühle
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− | Selber geworden!
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− | Gute, schreckhaft siehst du mich an, erschrick nicht;
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− | Sieh, das Haupthaar weiß, und des Auges Sehkraft
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− | Abgestumpft; warm schlägt in der Brust das Herz zwar,
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− | Aber es friert mich!
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− | Naht der Unhold, laß mich ins Aug ihm scharf sehn:
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− | Wahrlich, Furcht nicht flößt er mir ein, er komme,
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− | Nicht bewußtlos raff er mich hin, ich will ihn
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− | Sehen und kennen.
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− | Laß den Wermutstrank mich, den letzten, schlürfen,
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− | Nicht ein Leichnam längst, ein vergeßner, schleichen
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− | Wo ich markvoll einst in den Boden Spuren
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− | Habe getreten.
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− | Ach! ein Blutstrahl quillt aus dem lieben Herzen:
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− | Fasse Mut, bleib stark; es vernarbt die Wunde,
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− | Rein und liebwert hegst du mein Bild im Herzen
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− | Nimmer vergänglich
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− | ОСЕНЬ
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− | Никнет к блеклой земле солнце понурое,
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− | В золоте зябнет листва, поле печалится,
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− | Остывает стерня, лишь одни туманы
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− | Кутают землю.
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− | Ветер гонит листву, снег нечаянный
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− | Скоро посыплет с небес, все живое замрет;
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− | Так увядает год, и я, душою увядая,
| |
− | Чувствую старость.
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− |
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− | Но ты на меня не смотри так испуганно,
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− | Волос мой поседел, перед взором нависла
| |
− | Тусклая мгла; пусть тепло еще в сердце, –
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− | Я уже зябну.
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− | Пусть приходит беда, в упор с ней встретимся!
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− | Не устрашусь, подступит пусть наваждение;
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− | Каждый шаг беды я бы хотел чутко
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− | Видеть и слышать.
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− | Дай мне вина глоток отведать последний,
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− | Чтобы забыть, как я влачу тело дряхлое,
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− | Я, ступавший прежде легко и бодро
| |
− | По земной тверди.
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− | Ах, кровавый луч бьет из сердца милого!
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− | Духом крепись, еще рана затянется,
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− | Если еще оживить любви моей образ
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− | В сердце навеки!
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− | AN DIE APOSTOLISCHEN
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− | 1.
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− | Ev. Matth. c. 24.
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− | Ja, überhand nimmt Ungerechtigkeit,
| |
− | Und Not, Empörung, Haß, Verrat befährden.
| |
− | Die falschen Christi wollen sich geberden
| |
− | Als mit dem Unrecht, nicht dem Recht, im Streit.
| |
− | Bald aber, nach der Trübsal dieser Zeit,
| |
− | Wird den Geschlechtern allen auf der Erden
| |
− | Des Menschen Zeichen offenbaret werden
| |
− | Mit großer Kraft und hoher Herrlichkeit.
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− | Vom Feigenbaume lernt: an seinen Zweigen
| |
− | Erkennet ihr des Sommers Anbeginn,
| |
− | Wann steigt der Saft und Blätter schon sich zeigen.
| |
− | Wo habt ihr, blöde Thoren, doch den Sinn?
| |
− | Ihr seht den Saft in alle Zweige steigen,
| |
− | Und leugnet euch den Sommer immerhin!
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− | ВЗЫСКУЮЩИМ ИСТИНЫ
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− | 1.
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− | Несправедливость, ложь со всех сторон,
| |
− | Хула, измена, подлости потоки.
| |
− | На правду нападают лжепророки,
| |
− | И негодяй в святые возведен.
| |
− |
| |
− | Но не навеки сумерки времен:
| |
− | Опять забьют живительные соки,
| |
− | И Человек в начертанные сроки
| |
− | Положит миру благостный закон.
| |
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− | Подобье от смоковницы возьмите –
| |
− | С листвой приходит лето в свой черед:
| |
− | На молодые ветви поглядите!
| |
− |
| |
− | Где разум твой, слепой, никчемный род?
| |
− | Листва прозябла, и светло в зените,
| |
− | А ты не веришь в солнечный восход!
| |
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| |
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| |
− | 2.
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− | Ev. Matth. c. 15–23.
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− | Senkt sich die Sonn' in klarer Herrlichkeit,
| |
− | So sagt ihr: Morgen wird das Wetter gut;
| |
− | Und hüllt der Morgen sich in trübe Glut,
| |
− | Urteilt ihr: ein Gewitter ist nicht weit.
| |
− | Könnt ihr denn nicht die Zeichen dieser Zeit
| |
− | Auch deuten, wie ihr doch den Himmel thut?
| |
− | Ihr Heuchler, Pharisäer, Otterbrut,
| |
− | Wohl hat von euch Jesajas prophezeit:
| |
− | Es spricht der Herr: dieweil ich es erfahren,
| |
− | Daß, wenn sie mich bekennen mit dem Munde,
| |
− | Sie mit dem Herzen ferne von mir sind,
| |
− | Will seltsam ich mit diesem Volk verfahren,
| |
− | Daß seiner Weisen Weisheit geh' zu Grunde
| |
− | Und seiner Klugen Klugheit werde blind.
| |
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− | 2.
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− |
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− | Уходит солнце с голубых высот, –
| |
− | Вы говорите: «Будет день погож».
| |
− | Но небо утром сумрачное сплошь, –
| |
− | Вы говорите: «Нас ненастье ждет».
| |
− |
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− | Прозреть бы вам времен грядущих ход,
| |
− | Вас, ясновидцы, бросило бы в дрожь!
| |
− | О лицемеры! Злую вашу ложь
| |
− | Уже Исайя видел наперед:
| |
− |
| |
− | От фарисеев нет нигде проходу,
| |
− | В их душах недоверие таится,
| |
− | Но льстят в лицо лукавые уста.
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− |
| |
− | Да будет горе этому народу:
| |
− | И ясность взора потеряют лица,
| |
− | И сердцем будет править слепота!
| |
− |
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− | 3.
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− | Schiller
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− |
| |
− | Ihr wollt zurück uns führen zu den Tagen
| |
− | Charakterloser Minderjährigkeit?
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− | Ihr hängt umsonst an der Vergangenheit,
| |
− | Ihr werdet nicht die Zukunft unterschlagen.
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− | Es ist ein eitel, ein vergeblich Wagen,
| |
− | Zu greifen ins bewegte Rad der Zeit,
| |
− | Der Morgen graut, verscheucht die Dunkelheit
| |
− | Und leuchtend stürzt hervor der Sonnenwagen.
| |
− | Die, blind und taub, ihr Augen habt und Ohren,
| |
− | Nicht Stimmen hören wollt, nicht Zeichen sehen,
| |
− | Ich zittre nur für euch, ihr blöden Thoren!
| |
− | Denn Gottes Ratschluß wird dennoch bestehen,
| |
− | Die Frucht der Zeit zu ihrer Zeit geboren
| |
− | Und das, was an der Zeit ist, doch geschehen.
| |
− |
| |
− | ШИЛЛЕР
| |
− |
| |
− | А вы бы вспять хотели возвратиться,
| |
− | Безликий век вам больше по уму?
| |
− | Нет, время вам не засадить в тюрьму,
| |
− | И ни к чему на прошлое молиться.
| |
− |
| |
− | Сдержать рассвета блещущие спицы
| |
− | Еще не удавалось никому:
| |
− | Встает заря, разоблачая тьму, –
| |
− | И вот сияет солнца колесница!
| |
− |
| |
− | Ослепли вы, не доверяя взору,
| |
− | И, слушая, вы глухи все равно –
| |
− | Вы близитесь к плачевному позору!
| |
− |
| |
− | Завету Бога сбыться суждено:
| |
− | Плод времени в свою поспеет пору,
| |
− | Что вовремя – да будет свершено.
| |
− |
| |
− |
| |
− | ABDALLAH
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− |
| |
− | Abdallah liegt behaglich am Quell der Wüste und ruht,
| |
− | Es weiden um ihn die Kamele, die achtzig, sein ganzes Gut;
| |
− | Er hat mit Kaufmannswaren Balsora glücklich erreicht,
| |
− | Bagdad zurück zu gewinnen, wird ledig die Reise ihm leicht.
| |
− | Da kommt zur selben Quelle, zu Fuß am Wanderstab,
| |
− | Ein Derwisch ihm entgegen den Weg von Bagdad herab,
| |
− | Sie grüßen einander, sie setzen beisammen sich zum Mahl,
| |
− | Und loben den Trunk der Quelle, und loben Allah zumal.
| |
− | Sie haben um ihre Reise teilnehmend einander befragt,
| |
− | Was jeder verlangt zu wissen, willfährig einander gesagt,
| |
− | Sie haben einander erzählet von dem und jenem Ort,
| |
− | Da spricht zuletzt der Derwisch ein gar bedächtig Wort:
| |
− | Ich weiß in dieser Gegend, und kenne wohl den Platz,
| |
− | Und könnte dahin dich führen, den unermeßlichsten Schatz.
| |
− | Man möchte daraus belasten mit Gold und Edelgestein
| |
− | Wohl achtzig, wohl tausend Kamele, es würde zu merken nicht sein.
| |
− | Abdallah lauscht betroffen, ihn blendet des Goldes Glanz,
| |
− | Es rieselt ihm kalt durch die Adern und Gier erfüllet ihn ganz:
| |
− | Mein Bruder, hör', mein Bruder, o führe dahin mich gleich!
| |
− | Dir kann der Schatz nicht nützen, du machst mich glücklich und reich.
| |
− | Laß dort mit Gold uns beladen die achtzig Kamele mein,
| |
− | Nur achtzig Kameleslasten, es wird zu merken nicht sein.
| |
− | Und dir, mein Bruder, verheiß ich, zu deines Dienstes Sold,
| |
− | Das beste von allen, das stärkste, mit seiner Last von Gold.
| |
− | Darauf der Derwisch: Mein Bruder, ich hab' es anders gemeint,
| |
− | Dir vierzig Kamele, mir vierzig, das ist, was billig mir scheint.
| |
− | Den Wert der vierzig Thiere empfängst du millionenfach,
| |
− | Und hätt' ich geschwiegen, mein Bruder, o denke, mein Bruder, doch nach.
| |
− | Wohlan, wohlan, mein Bruder, laß gleich uns ziehen dahin,
| |
− | Wir teilen gleich die Kamele, wir teilen gleich den Gewinn.
| |
− | Er sprach's, doch thaten ihm heimlich die vierzig Lasten leid,
| |
− | Dem Geiz in seinem Herzen gesellte sich der Neid.
| |
− | Und so erhoben die Beiden vom Lager sich ohne Verzug,
| |
− | Abdallah treibt die Kamele, der Derwisch leitet den Zug.
| |
− | Sie kommen zu den Hügeln; dort öffnet, eng und schmal
| |
− | Sich eine Schlucht zum Eingang in ein geräumig Thal.
| |
− |
| |
− | Schroff, überhangend umschließet die Felswand rings den Raum,
| |
− | Noch drang in diese Wildnis des Menschen Fuß wohl kaum.
| |
− | Sie halten; bei den Tieren Abdallah sich verweilt,
| |
− | Der sie, der Last gewärtig, in zwei Gefolge verteilt.
| |
− | Indessen häuft der Derwisch am Fuß der Felsenwand
| |
− | Verdorrtes Gras und Reisig und steckt den Haufen in Brand;
| |
− | Er wirft, so wie die Flamme sich prasselnd erhebt, hinein
| |
− | Mit seltsamem Thun und Reden viel kräftige Spezerei'n.
| |
− | In Wirbeln wallt der Rauch auf, verfinsternd schier den Tag,
| |
− | Die Erde bebt, es dröhnet ein starker Donnerschlag,
| |
− | Die Finsternis entweichet, der Tag bricht neu hervor,
| |
− | Es zeigt sich in dem Felsen ein weit geöffnet Thor.
| |
− | Es führt in prächtige Hallen, wie nimmer ein Aug' sie geschaut,
| |
− | Aus Edelgestein und Metallen von Geistern der Tiefen erbaut,
| |
− | Es tragen gold'ne Pilaster ein hohes Gewölb' von Kristall,
| |
− | Hellfunkelnde Karfunkeln verbreiten Licht überall.
| |
− | Es lieget zwischen den gold'nen Pilastern, unerhört,
| |
− | Das Gold hoch aufgespeichert, deß Glanz den Menschen bethört.
| |
− | Es wechseln mit den Haufen des Goldes, die Hallen entlang,
| |
− | Demanten, Smaragden, Rubinen, dazwischen nur schmal der Gang.
| |
− | Abdallah schaut's betroffen, ihn blendet des Goldes Glanz,
| |
− | Es rieselt ihm kalt durch die Adern und Gier erfüllet ihn ganz.
| |
− | Sie schreiten zum Werke; der Derwisch hat klug sich Demanten erwählt.
| |
− | Abdallah wühlet im Golde, im Golde, das nur ihn beseelt.
| |
− | Doch bald begreift er den Irrtum und wechselt die Last und tauscht
| |
− | Für Edelgestein und Demanten das Gold, deß Glanz ihn berauscht,
| |
− | Und was er fort zu tragen die Kraft hat, minder ihn freut,
| |
− | Als, was er liegen muß lassen, ihn heimlich wurmt und reut.
| |
− | Geladen sind die Kamele, schier über ihre Kraft,
| |
− | Abdallah sieht mit Staunen, was ferner der Derwisch schafft.
| |
− | Der geht den Gang zu Ende und öffnet eine Truh',
| |
− | Und nimmt daraus ein Büchschen und schlägt den Deckel zu.
| |
− | Es ist von schlichtem Holze und, was darin verwahrt,
| |
− | Gleich wertlos, scheint nur Salbe, womit man salbt den Bart;
| |
− | Er hat es prüfend betrachtet, das war das rechte Geschmeid,
| |
− | Er steckt es wohlgefällig in sein gefaltet Kleid.
| |
− | Drauf schreiten hinaus die Beiden, und draußen auf dem Plan
| |
− | Vollbringt der Derwisch die Bräuche, wie er's beim Eintritt gethan;
| |
− | Der Schatz verschließt sich donnernd, ein jeder übernimmt
| |
− | Die Hälfte der Kamele, die ihm das Los bestimmt.
| |
− | Sie brechen auf und wallen zum Quell der Wüste vereint,
| |
− | Wo sich die Straßen trennen, die jeder zu nehmen meint;
| |
− | Dort scheiden sie und geben einander den Bruderkuß;
| |
− | Abdallah erzeigt sich erkenntlich mit tönender Worte Erguß.
| |
− | Doch, wie er abwärts treibet, schwillt Neid in seiner Brust,
| |
− | Des andern vierzig Lasten, sie dünken ihn eig'ner Verlust;
| |
− | Ein Derwisch, solche Schätze, die eig'nen Kamele, – das kränkt,
| |
− | Und was bedarf der Schätze, wer nur an Allah denkt?
| |
− | Mein Bruder, hör', mein Bruder! – so folgt er seiner Spur –
| |
− | Nicht um den eig'nen Vorteil, ich denk' an deinen nur,
| |
− | Du weißt nicht, welche Sorgen, und weißt nicht, welche Last
| |
− | Du, Guter, an vierzig Kamelen dir aufgebürdet hast.
| |
− | Noch kennst du nicht die Tücke, die in den Tieren wohnt,
| |
− | O glaub' es mir, der Mühen von Jugend auf gewohnt,
| |
− | Versuch' ich's wohl mit achtzig, dir wird's mit vierzig zu schwer,
| |
− | Du führst vielleicht noch dreißig, doch vierzig nimmermehr.
| |
− | Darauf der Derwisch: Ich glaube, daß recht du haben magst,
| |
− | Schon dacht' ich bei mir selber, was du, mein Bruder, mir sagst.
| |
− | Nimm, wie dein Herz begehret, von diesen Kamelen noch zehn,
| |
− | Du sollst von deinem Bruder nicht unbefriedigt geh'n.
| |
− | Abdallah dankt und scheidet und denkt in seiner Gier:
| |
− | Und wenn ich zwanzig begehrte, der Thor, er gäbe sie mir.
| |
− | Er kehrt zurück im Laufe, es muß versuchet sein,
| |
− | Er ruft, ihn hört der Derwisch und harret gelassen sein.
| |
− | Mein Bruder, hör', mein Bruder, o traue meinem Wort,
| |
− | Du kommst, unkundig der Wartung, mit dreißig Kamelen nicht fort,
| |
− | Die widerspenstigen Tiere sind störriger, denn du denkst,
| |
− | Du machst es dir bequemer, wenn du mir zehn noch schenkst.
| |
− | Darauf der Derwisch: Ich glaube, daß recht du haben magst,
| |
− | Schon dacht' ich bei mir selber, was du, mein Bruder, mir sagst.
| |
− | Nimm, wie dein Herz begehret, von diesen Kamelen noch zehn,
| |
− | Du sollst von deinem Bruder nicht unbefriedigt geh'n.
| |
− | Und wie so leicht gewähret, was kaum er sich gedacht,
| |
− | Da ist in seinem Herzen erst recht die Gier erwacht;
| |
− | Er hört nicht auf, er fordert, wohl ohne sich zu scheu'n,
| |
− | Noch zehen von den Zwanzig und von den Zehen neun.
| |
− | Das eine nur, das letzte, dem Derwisch übrig bleibt,
| |
− | Noch dies ihm abzufordern des Herzens Gier ihn treibt;
| |
− | Er wirft sich ihm zu Füßen, umfasset seine Knie:
| |
− | Du wirst nicht Nein mir sagen, noch sagtest du Nein mir nie.
| |
− | So nimm das Tier, mein Bruder, wonach dein Herz begehrt,
| |
− | Es ist, daß trauernd du scheidest von deinem Bruder, nicht wert.
| |
− | Sei fromm und weis' im Reichtum, und beuge vor Allah dein Haupt,
| |
− | Der, wie er Schätze spendet, auch Schätze wieder raubt.
| |
− | Abdallah dankt und scheidet und denkt in seinem Sinn:
| |
− | Wie mochte der Thor verscherzen so leicht den reichen Gewinn?
| |
− | Da fällt ihm ein das Büchschen: das ist das rechte Geschmeid,
| |
− | Wie barg er's wohlgefällig in sein gefaltet Kleid!
| |
− | Er kehrt zurück: Mein Bruder, mein Bruder! auf ein Wort,
| |
− | Was nimmst du doch das Büchschen, das schlechte, mit dir noch fort?
| |
− | Was soll dem frommen Derwisch der weltlich eitle Tand? –
| |
− | So nimm es, spricht der Derwisch, und legt es in seine Hand.
| |
− | Ein freudiges Erschrecken den Zitternden befällt,
| |
− | Wie er auch noch das Büchschen, das rätselhafte, hält;
| |
− | Er spricht kaum dankend weiter: So lehre mich nun auch,
| |
− | Was hat denn diese Salbe für einen besondern Gebrauch?
| |
− | Der Derwisch: Groß ist Allah, die Salbe wunderbar.
| |
− | Bestreichst du dein linkes Auge damit, durchschauest du klar
| |
− | Die Schätze, die schlummernden alle, die unter der Erde sind;
| |
− | Bestreichst du dein rechtes Auge, so wirst du auf beiden blind.
| |
− | Und selber zu versuchen die Tugend, die er kennt,
| |
− | Der wunderbaren Salbe, Abdallah nun entbrennt:
| |
− | Mein Bruder, hör', mein Bruder, du machst es besser traun!
| |
− | Bestreiche mein Auge, das linke, und laß die Schätze mich schau'n.
| |
− | Willfährig thut's der Derwisch, da schaut er unterwärts
| |
− | Das Gold in Kammern und Adern, das gleißende, schimmernde Erz;
| |
− | Demanten, Smaragden, Rubinen, Metall und Edelgestein,
| |
− | Sie schlummern unten und leuchten mit seltsam lockendem Schein.
| |
− | Er schaut's und starrt betroffen, ihn blendet des Goldes Glanz,
| |
− | Es rieselt ihm kalt durch die Adern und Gier erfüllet ihn ganz.
| |
− | Er denkt: würd' auch bestrichen mein rechtes Auge zugleich,
| |
− | Vielleicht besäß' ich die Schätze und würd' unermeßlich reich.
| |
− | Mein Bruder, hör', mein Bruder, zum letztenmal mich an,
| |
− | Bestreiche mein rechtes Auge, wie du das linke gethan;
| |
− | Noch diese meine Bitte, die letzte, gewähre du mir,
| |
− | Dann scheiden unsere Wege und Allah sei mit dir.
| |
− | Darauf der Derwisch: mein Bruder, nur Wahrheit sprach mein Mund,
| |
− | Ich machte dir die Kräfte von deiner Salbe kund.
| |
− | Ich will, nach allem Guten, das ich dir schon erwies,
| |
− | Die strafende Hand nicht werden, die dich ins Elend stieß.
| |
− | Nun hält er fest am Glauben und brennt vor Ungeduld,
| |
− | Den Neid, die Schuld des Herzens, giebt er dem Derwisch schuld;
| |
− | Daß dieser sich so weigert, das ist für ihn der Sporn,
| |
− | Der Gier in seinem Herzen gesellet sich der Zorn.
| |
− | Er spricht mit höhnischem Lachen: du hältst mich für ein Kind;
| |
− | Was sehend auf einem Auge, macht nicht auf dem andern mich blind.
| |
− | Bestreiche mein rechtes Auge, wie du das linke gethan,
| |
− | Und wisse, daß, falls du mich reizest, Gewalt ich brauchen kann.
| |
− | Und wie er noch der Drohung die That hinzugefügt,
| |
− | Da hat der Derwisch endlich stillschweigend ihm genügt:
| |
− | Er nimmt zur Hand die Salbe, sein rechtes Aug' er bestreicht –
| |
− | Die Nacht ist angebrochen, die keinem Morgen weicht.
| |
− | O Derwisch, arger Derwisch, du doch die Wahrheit sprachst,
| |
− | Nun heile, kenntnisreicher, was selber du verbrachst. –
| |
− | Ich habe nichts verbrochen, dir ward, was du gewollt,
| |
− | Du stehst in Allah's Händen, der alle Schulden zollt.
| |
− | Er fleht und schreit vergebens und wälzet sich im Staub,
| |
− | Der Derwisch abgewendet bleibt seinen Klagen taub;
| |
− | Der sammelt die achtzig Kamele und gen Balsora treibt,
| |
− | Derweil Abdallah verzweifelnd am Quell der Wüste verbleibt.
| |
− | Die nicht er schaut, die Sonne vollbringet ihren Lauf,
| |
− | Sie ging am andern Morgen, am dritten wieder auf,
| |
− | Noch lag er da verschmachtend; ein Kaufmann endlich kam,
| |
− | Der nach Bagdad aus Mitleid den blinden Bettler nahm.
| |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− |
| |
− | У родника в пустыне праздно лежит Абдалла.
| |
− | Пасутся его верблюды, неплохи его дела.
| |
− | Он в Басре продал товары и этой удаче рад,
| |
− | Теперь ему кажется легким путь обратный в Багдад.
| |
− |
| |
− | В тот же самый оазис вкусить заповедную тишь
| |
− | Идет, опираясь на посох, одинокий дервиш.
| |
− | Вот они повстречались, сказали — Аллаху хвала! -
| |
− | И сели друг против друга, нищий и Абдалла.
| |
− |
| |
− | Легко потекла беседа меж ними о том, о сем,
| |
− | О судьбе человека в мире, им обжитом,
| |
− | Кто видел какие страны, чем память о них жива,
| |
− | И наконец промолвил дервиш такие слова:
| |
− |
| |
− | Недалеко отсюда, я место это найду,
| |
− | Есть клад несметных сокровищ, тебя я туда приведу,
| |
− | Мы можем твоих верблюдов, восемьдесят до одного.
| |
− | Всех навьючить богатством, и там не убудет его.
| |
− |
| |
− | От этой нежданной вести даже вскочил Абдалла,
| |
− | Кровь зашумела в жилах, алчность его взяла:
| |
− | Так покажи скорее, веди же меня, мой брат,
| |
− | Знаю, ты бескорыстен, но мне пригодится клад!
| |
− |
| |
− | Восемьдесят верблюдов навьючим до одного
| |
− | Чудесным этим богатством, и там не убудет его.
| |
− | И я даю обещанье — за эту услугу твою
| |
− | Сильнейшего из верблюдов с поклажей тебе отдаю.
| |
− |
| |
− | Ему дервиш на это: но было в мыслях моих —
| |
− | Лучше, если разделим весь караван на двоих,
| |
− | Тебе и сорок верблюдов окупятся тысячекрат,
| |
− | Решай, ведь я тебе мог и не говорить про клад.
| |
− |
| |
− | Добро, Абдалла ответил, не будем время тянуть,
| |
− | Согласен на равную долю, давай отправляться в путь,
| |
− | Сказал, а в сердце зависть готовила смуту уму,
| |
− | Жаль, половина поклажи достанется не ему.
| |
− |
| |
− | Они поднялись не медля, золото их зовет,
| |
− | Купец погоняет верблюдов, дервиш караван ведет.
| |
− | Уже показались горы, тропа в ущелье пошла,
| |
− | Причудливо нагромождались над скалою скала.
| |
− |
| |
− | Путь преградили камни, казалось, что никогда
| |
− | Никто из простых смертных не проникал сюда.
| |
− | Здесь караван верблюдов сам поделил Абдалла,
| |
− | Чтоб каждая половина поклажи своей ждала.
| |
− |
| |
− | Дервиш тем временем хворост в расселинах отыскал,
| |
− | И у скалы отвесной скоро огонь запылал;
| |
− | Потом с загадочной речью руки над дымом простер
| |
− | И колдовские коренья бросил дервиш в костер.
| |
− |
| |
− | Дым повалил клубами, стало темно кругом,
| |
− | По земле и по небу вдруг прокатился гром,
| |
− | Но вот расходится сумрак, снова день настает,
| |
− | И в скале потаенный отворяется ход.
| |
− |
| |
− | Ведет он в роскошные залы, таких Абдалла не видал,
| |
− | Везде драгоценные камни и благородный металл,
| |
− | Там золотые колонны вздымают алмазный свод,
| |
− | Свет неземной струится из кристаллических сот.
| |
− |
| |
− | Лежат золотые слитки у этих литых колонн,
| |
− | Видом таких сокровищ был бы любой ослеплен,
| |
− | И сверкают повсюду, куда проникает глаз,
| |
− | Редкостные изумруды, жемчуг, сапфир, алмаз.
| |
− |
| |
− | Глазам своим не веря, остолбенел Абдалла.
| |
− | Но кровь зашумела в жилах, алчность его взяла,
| |
− | Они приступают к делу, алмазы дервиш собирал,
| |
− | Купец в исступленье видел только желтый металл.
| |
− |
| |
− | Но скоро он понял ошибку и золото стал заменять
| |
− | На драгоценные камни, но алчности не унять,
| |
− | Он все бы вынес отсюда, когда бы хватило сил,
| |
− | Так блеск безмерных сокровищ пленял его и слепил.
| |
− |
| |
− | Навьючены все верблюды, сколько могут поднять,
| |
− | Но странно, дервиш заходит в сокровищницу опять,
| |
− | Все роскошные залы проходит он до конца
| |
− | И вынимает шкатулку из большого ларца.
| |
− |
| |
− | Среди богатых сокровищ откуда она взялась,
| |
− | Простенькая шкатулка, в ней какая-то мазь,
| |
− | Дервиш осмотрел находку, ликуя и трепеща.
| |
− | И спрятал ее поглубже в грязные складки плаща.
| |
− |
| |
− | Затем к огню они вышли, и так же, как в прежний раз,
| |
− | Дервиш произнес заклинанье, и грохот скалы потряс,
| |
− | Сокровищница закрылась, и каждый повел средь гор
| |
− | Сорок своих верблюдов, как велел уговор.
| |
− |
| |
− | Вначале двигались вместе, и вот прохладный родник,
| |
− | Который их свел в пустыне, перед ними возник.
| |
− | Пора настала прощаться, дервиш из уст Абдаллы
| |
− | Выслушал благосклонно заслуженные хвалы.
| |
− |
| |
− | Но только они расстались, как зависть сдавила грудь.
| |
− | Обратно своих верблюдов решил Абдалла вернуть.
| |
− | Зачем дервишу богатства, которым нет и цены,
| |
− | Когда его устремленья к Аллаху идти должны?
| |
− |
| |
− | Брат! — Абдалла воскликнул своему доброхоту вослед,—
| |
− | Это даже не просьба, а скорее совет,
| |
− | Ты хорошо ли подумал, сколько разных забот
| |
− | Стадо глупых верблюдов в пути тебе принесет?
| |
− |
| |
− | Не знаешь ты этих тварей, покажут они свой нрав.
| |
− | Намучаешься с ними, увидишь, что я был прав.
| |
− | Отдай мне десять верблюдов, еще пе поздно пока,
| |
− | С тридцатью ты, пожалуй, сладишь, но только не с сорока.
| |
− |
| |
− | Дервиш отвечал: я в этом согласен с тобой вполне,
| |
− | Надеялся я, что сам ты предложишь услугу мне,
| |
− | Бери же десять верблюдов, мне хватит и тридцати,
| |
− | А ты без полного счастья от брата не должен уйти.
| |
− |
| |
− | Взял Абдалла верблюдов и дальше думает так:
| |
− | Когда попросил бы я двадцать, отдал бы и двадцать дурак.
| |
− | Надо опять вернуться, попытка стоит того,
| |
− | И он окликнул дервиша, и тот услышал его.
| |
− |
| |
− | Брат мой, совету внемли, я не способен на ложь,
| |
− | Ты, не имея сноровки, и с тридцатью не дойдешь,
| |
− | Эти твари коварной, чем можешь ты ожидать,
| |
− | Пожалуй, еще десяток лучше бы мне отдать.
| |
− |
| |
− | Дервиш отвечал: я в этом согласен с тобой вполне,
| |
− | Ведь от такой услуги мне станет легче вдвойне,
| |
− | Бери еще десять верблюдов, мне хватит и двадцати,
| |
− | А ты без полного счастья от брата не должен уйти.
| |
− |
| |
− | Все идет, как по маслу, удаче рад Абдалла,
| |
− | Но он еще недоволен, алчность его взяла,
| |
− | И просит он позволенья в свой караван увести
| |
− | Из двадцати еще десять, и девять из десяти.
| |
− |
| |
− | Итак, дервишу остался только один верблюд,
| |
− | Но Абдалле покоя страсти его не дают,
| |
− | Упал он к ногам дервиша, не ощущая стыда:
| |
− | Ты же мне не откажешь, не скажешь Нет никогда!
| |
− |
| |
− | Бери, мой брат, верблюда, спокоен будь и богат,
| |
− | Тебя без полного счастья твой не отпустит брат,
| |
− | В пути береги добычу, тебя же храни Аллах,
| |
− | Который дает богатства и их обращает в прах.
| |
− |
| |
− | Казалось, купец доволен, но нет покоя уму:
| |
− | Что же дорвиш так просто добычу отдал ему?
| |
− | И вспомнил вдруг о шкатулке, которую, трепеща,
| |
− | Прятал дервиш поглубже в грязные складки плаща.
| |
− |
| |
− | И снова он вопрошает: послушай меня, мой брат,
| |
− | Что это ты шкатулке был без памяти рад?
| |
− | Зачем святому дервишу пустяковая блажь?
| |
− | Может быть, ты и шкатулку в руки мои отдашь?
| |
− |
| |
− | Бери, дервиш отвечает, мне она ни к чему.
| |
− | И в дрожащие, руки шкатулку вложил ему.
| |
− | Купец, горя любопытством, возопил: Чародей!
| |
− | Что делать с волшебной мазью, мне объясни скорей!
| |
− |
| |
− | Дервиш ему отвечает: Аллах справедлив и щедр.
| |
− | Левый свой глаз намажешь, узришь сокровища недр,
| |
− | Золотоносные жилы, русла жемчужных рек.
| |
− | Правый свой глаз намажешь, и ослепнешь навек.
| |
− |
| |
− | Душа Абдаллы в смятенье, в сердце его пожар,
| |
− | Он тут же изведать жаждет действие этих чар:
| |
− | Мой брат, сослужи мне службу, я очень прошу сейчас,
| |
− | Чтобы я чудо увидел, намажь мне мой левый глаз!
| |
− |
| |
− | Просьбу дервиш исполнил, и Абдалла увидал
| |
− | Блеск подземных сокровищ, скрытый в рудах металл,
| |
− | Вспыхивали повсюду груды ярких камней,
| |
− | И сиянье не меркло, а разгоралось сильней.
| |
− |
| |
− | Богатством недр очарован, вне себя Абдалла,
| |
− | Кровь зашумела в жилах, алчность его взяла.
| |
− | А если волшебной мазью намазать и правый глаз,
| |
− | Станет его добычей все, что он видел сейчас!
| |
− |
| |
− | Брат мой, меня послушай, последнюю просьбу уважь!
| |
− | Так же, как прежде левый, правый мне глаз намажь,
| |
− | Не отказывай брату, дерзость эту прости,
| |
− | И пусть затем разойдутся наши с тобой пути.
| |
− |
| |
− | Дервиш ему отвечает: но я не желаю зла,
| |
− | Я тайну волшебной мази открыл тебе, Абдалла,
| |
− | Немало благих деяний у рук моих на счету,
| |
− | Я не хотел бы ими ввергнуть тебя в нищету.
| |
− |
| |
− | Глух Абдалла к рассудку, он у страсти в плену,
| |
− | Он вменяет дервишу умысел злой в вину,
| |
− | Мол, тот отвечает отказом, от зависти очерствев;
| |
− | Так Абдалла распалялся, все больше впадая в гнев.
| |
− |
| |
− | Доказывал он дервишу: любому дано понять,
| |
− | То, что дарует зренье, не может его отнять,
| |
− | Сделай мне с правым глазом, что с левым ты совершил;
| |
− | Или тебя принудить не хватит, считаешь, сил?
| |
− |
| |
− | Казалось, исполнить угрозу уже Абдалла готов.
| |
− | Одно осталось дервишу — повиноваться без слов.
| |
− | Намазал он мазью волшебной правый глаз Абдалле,
| |
− | И тот очутился сразу в непроницаемой мгле.
| |
− |
| |
− | О чародей, я верю, ты не способен на ложь,
| |
− | Способ вернуть мне зренье ты непременно найдешь.
| |
− | Ведь я не творил бесчестья, не делал зла и обид,
| |
− | И моего несчастья Аллах тебе не простит.
| |
− |
| |
− | Но руки его напрасно хватают пустую тьму,
| |
− | Дервиш в дорогу собрался и не внимает ему,
| |
− | Восемьдесят верблюдов он гонит перед собой,
| |
− | Один Абдалла остался, беспомощный и слепой.
| |
− |
| |
− | Звезды сменяли солнце, но он не видел светил,
| |
− | У родника в пустыне лежал он уже без сил,
| |
− | На третий день из Басры шел караван в Багдад,
| |
− | Из милости был купцами нищий калека взят.
| |
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